साम्प्रदायिकता एक अभिशाप पर निबंध | साम्प्रदायिकता पर निबंध | Essay on "Sampradayikta Ek Abhishap" Nibandh in hindi | Essay on Sampradayikta in hindi | Sampradayikta par nibandh
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साम्प्रदायिकता | Sampradayikta | Communalism |
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साम्प्रदायिकता पर निबंध | Communalism ( 198 Word )
Shot Essay - 1 :- साम्प्रदायिकता पर निबंध | साम्प्रदायिकता एक अभिशाप पर निबंध
वास्तव में सांप्रदायिकता एक विचारधारा है, जो बताती है कि समाज धार्मिक समुदाय में विभाजित है, जिनके हित एक दूसरे से भिन्न है और कभी-कभी उनमें पारस्परिक उग्र विरोध भी होता है| सांप्रदायिकता का अंग्रेजी पर्याय (Communalism) है | Communalism अपने मूल शब्द Commune से उत्पन्न हुआ है जिसका शाब्दिक अर्थ मिल-जुलकर भाई चारे के साथ रहना है, लेकिन इतिहास की कुछ उन विशिष्ट अवधारणाओं में सांप्रदायिकता भी शामिल है जो अपना वास्तव अर्थ अपने मूल अर्थ से भिन्न रखती है|
सांप्रदायिकता की विचारधारा मूलत: धार्मिकता से जुड़ी होती है| धर्म के साथ मेल करके ही सांप्रदायिकता की विचारधारा पल्लवित होती है| साम्प्रदायिक व्यक्ति वे होते हैं, जो राजनीति को धर्म के माध्यम से चलाते हैं| साम्प्रदायिक व्यक्ति धार्मिक नहीं होता, बल्कि वह एक ऐसा व्यक्ति होता है जो राजनीति को धर्म से जोड़कर राजनीति रूपी शतरंज की चाल खेलता है| उसके लिए धर्म एवं ईश्वर केवल उपकरण मात्र हैं जिनका उपयोग में समाज में विलासितापूर्ण जीवन जीने एवं व्यक्तिगत लक्ष्य की प्राप्ति के लिए करता है| धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता की आग फैलाने वाले लोगों पर कटाक्ष करते हुए हरिवंश राय बच्चन ने मधुशाला में लिखा है वह बढ़ाते मंदिर मस्जिद मेल कराती मधुशाला|
भारत पर विदेशी मुसलमानों के आक्रमण लगभग 10 सताब्दी में प्रारंभ हो गए थे, परंतु महमूद गजनबी और मोहम्मद गौरी जैसे मुस्लिम आक्रमणकारी धार्मिक आधिपत्य स्थापित करने की अपेक्षा आर्थिक संसाधनों को लूटने में अधिक रुचि रखते थे| कुतुबुद्दीन ऐबक के आगमन के इसके दिल्ली का पहला शासक बनने के बाद इस्लाम धर्म ने भारत में अपने पैर जमाए| इसके पश्चात मुगलों अपने समाज साम्राज्य को संगठित करने की प्रक्रिया में इस्लाम को मुख्य हथियार बनाते हुए धर्म परिवर्तन के प्रयत्न किए तथा हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच सांप्रदायिक झगड़ो को भड़काने का प्रयास किया|
जब अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत पर अपना आधिपत्य जमाया, तो प्रारंभ में उन्होंने हिंदुओं को संरक्षण देने की नीति अपनाई, परंतु 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात अंग्रेजों ने भारतीय जन एकता को खंडित करने के लिए खुलकर फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई फलस्वरूप झगड़ों को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला| यह कहा जा सकता है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पारस्परिक विरोध बहुत पुराना मुद्दा है लेकिन हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिकता स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश शासन की विरासत है| अंग्रेजो ने भारत को स्वतंत्र किया मगर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बांटकर दोनों देशों को सांप्रदायिकता की आग में झुलसने के लिए छोड़ दिया जिसका लेखिका अमृता प्रीतम ने अपने उपन्यास पिंजङ मे बड़ा ही सजीव वर्णन किया है| दोनों देशों के सांप्रदायिक हिंदुओं और मुसलमानों की व्यंग्यात्मक शैली में निंदा करते हुए भारत के वर्तमान शायर निदा फाजली लिखा है हिंदू भी मजे में है मुसलमान मैं भी मजे में है इंसान परेशान यहां भी है वहां भी|
इतिहासकार प्रो विपिन चंद्र का मानना है कि कांग्रेस ने प्रारंभ से ही “चोटी से एकता” की नीति अपनाई, जिसके अंतर्गत मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग मुसलमानों (जिन्हें मुसलमान समुदाय का नेता माना जाता था) को अपनी और करने का प्रयत्न किया गया| हिंदू और मुसलमान दोनों के द्वारा जनता के साम्राज्य विरोधी भावनाओं की सीधी अपील करने के लिए स्थान पर यह मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के मुसलमानों पर छोड़ दिया गया कि वे मुसलमान जनता को आंदोलन में सम्मिलित करें| इस प्रकार “चोटी से एकता” उपागम साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए हिंदू मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित नहीं कर पाया|
सांप्रदायिकता की विचारधारा मूलत: धार्मिकता से जुड़ी होती है| धर्म के साथ मेल करके ही सांप्रदायिकता की विचारधारा पल्लवित होती है| साम्प्रदायिक व्यक्ति वे होते हैं, जो राजनीति को धर्म के माध्यम से चलाते हैं| साम्प्रदायिक व्यक्ति धार्मिक नहीं होता, बल्कि वह एक ऐसा व्यक्ति होता है जो राजनीति को धर्म से जोड़कर राजनीति रूपी शतरंज की चाल खेलता है| उसके लिए धर्म एवं ईश्वर केवल उपकरण मात्र हैं जिनका उपयोग में समाज में विलासितापूर्ण जीवन जीने एवं व्यक्तिगत लक्ष्य की प्राप्ति के लिए करता है| धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता की आग फैलाने वाले लोगों पर कटाक्ष करते हुए हरिवंश राय बच्चन ने मधुशाला में लिखा है वह बढ़ाते मंदिर मस्जिद मेल कराती मधुशाला|
Short Essay - 2 :- साम्प्रदायिकता पर निबंध | साम्प्रदायिकता एक अभिशाप पर निबंध( 365 Word )
भारत पर विदेशी मुसलमानों के आक्रमण लगभग 10 सताब्दी में प्रारंभ हो गए थे, परंतु महमूद गजनबी और मोहम्मद गौरी जैसे मुस्लिम आक्रमणकारी धार्मिक आधिपत्य स्थापित करने की अपेक्षा आर्थिक संसाधनों को लूटने में अधिक रुचि रखते थे| कुतुबुद्दीन ऐबक के आगमन के इसके दिल्ली का पहला शासक बनने के बाद इस्लाम धर्म ने भारत में अपने पैर जमाए| इसके पश्चात मुगलों अपने समाज साम्राज्य को संगठित करने की प्रक्रिया में इस्लाम को मुख्य हथियार बनाते हुए धर्म परिवर्तन के प्रयत्न किए तथा हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच सांप्रदायिक झगड़ो को भड़काने का प्रयास किया|
जब अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से भारत पर अपना आधिपत्य जमाया, तो प्रारंभ में उन्होंने हिंदुओं को संरक्षण देने की नीति अपनाई, परंतु 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात अंग्रेजों ने भारतीय जन एकता को खंडित करने के लिए खुलकर फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई फलस्वरूप झगड़ों को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला| यह कहा जा सकता है कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पारस्परिक विरोध बहुत पुराना मुद्दा है लेकिन हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिकता स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश शासन की विरासत है| अंग्रेजो ने भारत को स्वतंत्र किया मगर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बांटकर दोनों देशों को सांप्रदायिकता की आग में झुलसने के लिए छोड़ दिया जिसका लेखिका अमृता प्रीतम ने अपने उपन्यास पिंजङ मे बड़ा ही सजीव वर्णन किया है| दोनों देशों के सांप्रदायिक हिंदुओं और मुसलमानों की व्यंग्यात्मक शैली में निंदा करते हुए भारत के वर्तमान शायर निदा फाजली लिखा है हिंदू भी मजे में है मुसलमान मैं भी मजे में है इंसान परेशान यहां भी है वहां भी|
इतिहासकार प्रो विपिन चंद्र का मानना है कि कांग्रेस ने प्रारंभ से ही “चोटी से एकता” की नीति अपनाई, जिसके अंतर्गत मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग मुसलमानों (जिन्हें मुसलमान समुदाय का नेता माना जाता था) को अपनी और करने का प्रयत्न किया गया| हिंदू और मुसलमान दोनों के द्वारा जनता के साम्राज्य विरोधी भावनाओं की सीधी अपील करने के लिए स्थान पर यह मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के मुसलमानों पर छोड़ दिया गया कि वे मुसलमान जनता को आंदोलन में सम्मिलित करें| इस प्रकार “चोटी से एकता” उपागम साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए हिंदू मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित नहीं कर पाया|
Medium Essay - 3 :- साम्प्रदायिकता पर निबंध | साम्प्रदायिकता एक अभिशाप पर निबंध( 430 words )
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साम्प्रदायिकता | Sampradayikta | Communalism |
प्रस्तावना- सम्प्रदाय का अर्थ है – विशेष रूप से देने योग्य, सामान्य रूप से नहीं अर्थात् हिन्दूमतावलम्बी के घर में जन्म लेने वाले बालक को हिन्दू धर्म की ही शिक्षा मिल सकती है, दूसरे को नहीं। इस प्रकार से साम्प्रदायिकता का अर्थ हुआ एक पन्थ, एक मत, एक धर्म या एक वाद। न केवल हमारा देश ही अपितु विश्व के अनेक देश भी साम्प्रदायिक हैं। अतः वहां भी साम्प्रदायिक हैं। अतः वहाँ भी साम्प्रदायिकता है। इस प्रकार साम्प्रदायिकता का विश्व व्यापी रूप है। इस तरह यह विश्व चर्चित और प्रभावित है।
साम्प्रदायिकता के दुष्परिणाम– साम्प्रदायिकता के अर्थ आज बुरे हो गए हैं। इससे आज चारों और भेदभाव, नफरत और कटुता का जहर फैलता जा रहा है। साम्प्रदायिकता से प्रभावित व्यक्ति, समाज और राष्ट्र एक-दूसरे के प्रति असद्भावों को पहुँचाता है। धर्म और धर्म नीति जब मदान्धता को पुन लेती है। तब वहाँ साम्प्रदायिकता उत्पन्न हो जाती है। उस समय धर्म-धर्म नहीं रह जाता है वह तो काल का रूप धारण करके मानवता को ही समाप्त करने पर तुल जाता है। फिर नैतिकता, शिष्टता, उदारता, सरलता, सहदयता आदि सात्विक और दैवीय गुणों और प्रभावों को कहीं शरण नहीं मिलती है। सत्कर्त्तव्य जैसे निरीह बनकर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाता है। परस्पर सम्बन्ध कितने गलत और कितने नारकीय बन जाते हैं। इसकी कहीं कुछ न सीमा रह जाती है और न कोई अुनमान। बलात्कार, हत्या, अनाचार, दुराचार आदि पाश्विक दुष्प्रवृत्तियाँ हुँकारने लगती हैं। परिणामस्वरूप मानवता का कहीं कोई चिन्ह नहीं रह जाता है।
इतिहास साक्षी है कि साम्प्रदायिकता की भयंकरता के फलस्वरूप ही अनेकानेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्ररीय स्तर पर भीषण रक्तपात हुआ है। अनेक राज्यों और जातियों का पतन हुआ है। अनेक देश साम्प्रदायिकता के कारण ही पराधीनता की बेडि़यों में जकड़े गए हैं। अनेक देशों का विभाजन भी साम्प्रदायिकता के फैलते हुए जहर-पान से ही हुआ है।
साम्प्रदायिकता का वर्तमान स्वरूप– आज केवल भारत में ही नहीं अपितु सारे विश्व में साम्प्रदायिकता का जहरीला साँप फुँफकार रहा है। हर जगह इसी कारण आतंकवाद ने जन्म लिया है। इससे कहीं हिन्दू-मुसलमान में तो कहीं सिक्खों-हिन्दुाओं या अन्य जातियों में दंगे फसाद बढ़ते ही जा रहे हैं। ऐसा इसलिए आज विश्व में प्रायः सभी जातियों और धर्मों ने साम्प्रदायिकता का मार्ग अपना लिया है। इसके पीछे कुछ स्वार्थी और विदेशी तत्व शक्तिशाली रूप से काम कर रहे हैं।
उपसंहार– साम्प्रदायिकता मानवता के नाम पर कलंक है। यदि इस पर यथाशीघ्र विजय नहीं पाई गई तो यह किसी को भी समाप्त करने से बाज नहीं आएगा। साम्प्रदायिकता का जहर कभी उतरता नहीं है। अतएव हमें ऐसा प्रयास करना चाहिए कि यह कहीं किसी तरह से फैले ही नहीं। हमें ऐसे भाव पैदा करने चाहिएं जो इसको कुचल सकें।
सांप्रदायिकता का अर्थ और कारण – जब कोई संप्रदाय स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और अन्य स्म्प्दयों को निम्न मानने लगता है, तब सांप्रदायिकता का जन्म होता है | दूसरी तरफ भी कम अंधे लोग नहीं होते | परिणामस्वरूप एक संप्रदाय के अंधे लोग अन्य धर्मांधों से भिड पड़ते है और सारा जन-जीवन लहूलुहान कर देते हैं | इन्हीं अंधों को फटकारते हुए महात्मा कबीर ने कहा है –
सर्वव्यापक समस्या – सांप्रदायिकता विश्व-भर में व्याप्त बुराई है | इंग्लैंड में रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ; मुसलिम देशों में शिया और सुन्नी ; भारत में बैाद्ध-वैष्णव, सैव- बैाद्ध, सनातनी, आर्यसमाजी, हिन्दू-सिक्ख झगड़े उभरते रहे हैं | एन झगड़ों के कारण जैसा नरसंहार होता है, जैसी धन-संपति की हानि होती है, उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं |
भारत में सांप्रदायिकता – भारत में सांप्रदायिकता की शुरूआत मुसलमानों के भारत में आने से हुई | शासन और शक्ति के मद में अन्धें आक्रमणकारियों ने धर्म को आधार बनाकर यहाँ के जन-जीवन को रौंद डाला | धार्मिक तीर्थों का तोड़ा, देवी-देवताओं को अपमानित किया, बहु-बेटियों को अपवित्र किया, जान-माल का हरण किया | परिणामस्वरूप हिंदू जाति के मन में उन पाप-कर्मो के प्रति गहरी घ्रणा भर गई, जो आज तक भी जीवित है | बात-बात पर हिंदू-मुसलिम संघर्ष का भड़क उठना उसी घ्रणा का सूचक है |
सांप्रदायिक घटनाएँ – सांप्रदायिकता को भड़कने में अंग्रेज शासकों का गहरा षड्यंत्र था | वे हिन्दू-मुसलिम झगड़े फैलाकर शासक बने रहने चाहते थे | उन्होनें सफलतापूर्वक दोनों को लड़ाया | आज़ादी से पहले अनेक खुनी संघर्ष हुए | आज़दी के बाद तो विभाजन का जो संघर्ष और भीषण नर-संहार हुआ, उसे देखकर समूची मानवता रो पड़ी | शहर-के-शहर गाजर-मुली की तरह काट डाले गए | अयोध्या के रामजन्म-भूमि विवाद ने देश में फिर से सांप्रदायिक आग भड़का दी है | बाबरी मसजिद का ढहाया जाना और उसके बदले सैंकड़ों मंदिरों का ढहाया जाना ताजा घटनाएँ हैं |
समाधान – सांप्रदायिकता की समस्या तब तक नहीं सुलझ सकती, जब रक् कि धर्म के ठेकेदार उसे सुलझाना नहीं चाहते | यदि सभी धर्मों के अनुयायी दूसरों के मत का सम्मान करें, उन्हें स्वीकारें, अपनाएँ, उनके कार्यक्रमों में सम्मिलित हों, उन्हें उत्सवों पर बधाई देकर भाईचारे का परिचय दें | विभिन्न धर्मों के संघषों को महत्व देने की बजाय उनकी समानताओं को महत्व दें तो आपसी झगड़े पैदाही न हों | कभी-कभी ईद-मिलन या होली-दिवाली पर ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं तो एक सुखद आशा जन्म लेती है | साहित्यकार और कलाकार भी सांप्रदायिकता से मुक्ति दिलाने में योगदान कर सकते हैं |
हमारा देश भारत सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है । यहाँ पर जितने धमों को मानने वाले लोग रहते हैं उतने संभवत: विश्व के किसी और देश में नहीं हैं । किसी विशेष धर्म पर आस्था रखने वाले लोगों का वर्ग ‘संप्रदाय’ कहलाता है ।
किसी विशेष संप्रदाय का कोई व्यक्ति यदि अपना कोई एक अन्य मत चलाता है तो उस मत को मानने वाले लोगों का वर्ग भी संप्रदाय कहलाता है । वास्तव में सभी संप्रदायों अथवा मतों का मूल एक ही है । सभी का संबंध मानवता से है । हर धर्म मानव को मानव से जोड़ना सिखाता है ।
परंतु जो धर्म इस भावना के विपरीत कार्य करता है उसे ‘धर्म’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती । आज कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए धर्म को संप्रदाय का रूप दे रहे हैं । प्रत्येक संप्रदाय आज अपने को श्रेष्ठ कहलाने के लिए आतुर है । इसके लिए वे किसी भी सीमा तक जाकर दूसरों को हीन साबित करना चाह रहे हैं ।
साप्रदायिकता का जहर इस सीमा तक फैलता जा रहा है कि कहीं-कहीं इसने वाद-विवाद की सीमा से हटकर संघर्ष का रूप ले लिया है । आज बहुत से लोग बलपूर्वक धर्म परिवर्तन के लिए दूसरों को बाध्य कर रहे हैं । इसी बल प्रयोग के परिणामस्वरूप ही सिख तथा मराठों का उदय हुआ ।
सांप्रदायिकता की आड़ में लोग मानवता, धर्म को भुला रहे हैं । वे नन्हे-नन्हे मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ रहे हैं । कितनी ही माताओं की गोद से उनके बच्चे छिन गए । कितनी ही औरतें युवावस्था में ही वैधव्य का कष्ट झेल रही हैं । हर ओर खून-खराबा हो रहा है । राजनीति में लोगों के राजनीतिक स्वार्थ ने भी प्राय: सांप्रदायिकता को हथियार की तरह प्रयोग किया है ।
एक संप्रदाय से दूसरे को धर्म अथवा जाति के नाम पर अलग करके वे हमेशा से ही अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं । सौप्रदायिकता की आग पर राजनीतिज्ञों ने प्राय: अपनी रोटियाँ सेंकी हैं परंतु इस सबके लिए दोषी ये राजनीतिज्ञ कम हैं क्योंकि विभिन्न संप्रदायों को हानि पहुँचाने की मूर्खता हम लोग ही करते हैं ।
हालाँकि सभी राजनीतिज्ञों को दोष देने की परंपरा अनुचित है परंतु यह सत्य है कि कुछ स्थानीय सांप्रदायिक नेतागण अपने संप्रदाय की सहानुभूति के लोभ में ओछी हरकतों को अंजाम देते रहे हैं । हमें ऐसे तत्वों से हमेशा सावधान रहना चाहिए ।
सांप्रदायिकता का जो सबसे खतरनाक रूप है, वह हमारे मर्म को ही बेध जाता है । वे अपना संबल तथाकथित धर्म के स्वरूपों में ढूँढ़ते हैं । भारतीय संसद पर हमला, गुजरात के भीषणतम दंगे, कश्मीर में जेहाद, अमेरिका पर अमानवीय हमला, रूस में स्कूली बच्चों सहित सात सौ लोगों के अपहरण कांड में लगभग चार सौ मासूमों की बलि, ये सारी बातें जब मानवता कई ही विरुद्ध हैं तो सांप्रदायिक दृष्टि से इन्हें कैसे जायज ठहराया जा सकता है।
आज भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व सांप्रदायिकता का विषपान करने के लिए अभिशप्त है । हमारा देश हालाँकि अपने उदार धार्मिक नजरिए के लिए हमेशा से जाना जाता रहा है परंतु कुछ लोग कट्टरवाद का सहारा लेकर अपने ही अतीत को कलंकित करने का कार्य कर रहे हैं ।
प्राचीन भारत में भी शैव, वैष्णव, बौद्ध जैन आदि विभिन्न संप्रदायों का अस्तित्व था परंतु उस समय के लोग अपने संप्रदाय से जुड़े होने पर गर्व का अनुभव करते थे । एक संप्रदाय के लोग दूसरे से वाद-विवाद करते थे, सिद्धांतों की व्याख्या होती थी, तर्क-वितर्क होते थे पर यह आपसी संघर्ष का रूप कभी नहीं लेते थे ।
उस समय प्रत्येक संप्रदाय स्वयं को अधिक शुद्ध, अधिक नैतिक तथा अधिक धार्मिक होने की प्रतियोगिता करता था जिससे मानव के विकास के द्वार खुलते थे । आज स्थिति पूरी तरह पलट गई है । तभी तो गाँधी जी जैसे महामानव को इसी संप्रदायवाद ने अपना शिकार बना लिया ।
विश्व में आज जितनी हिंसा हो रही है, उसके मूल में प्राय: सांप्रदायिकता है । इस विष वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सजगता दिखानी होगी क्योंकि व्यक्ति समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई होती है ।
सांप्रदायिकता वास्तविक रूप में मानव जाति के लिए किसी कलंक से कम नहीं है । यह विकास की गति को कम करके देश को प्रगति के पथ पर बहुत पीछे धकेल देती है । हम सबका यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने निजी स्वार्थों से बचें ।
दूसरों के बहकावे में न आएँ । हर धर्म को समभाव से देखें और उनका समान रूप से आदर करें तो वह दिन दूर नहीं होगा जब हम समाज से सांप्रदायिकता का समूल विनाश कर सकेंगे ।
अनेक धर्मों, जातियों, संप्रदायों आदि के रहते हुए भी अपनी मूल अवधारणा में भारत अपने आरंभ से ही एक समन्यवादी देश रहा और है। यहां की स्थूल-सूक्ष्म प्रकृति भी समन्यवादी कही जा सकती है। तभी तो वन, पर्वत, मैदान , रेगिस्तान आदि की विविधता के साथ-साथ छह ऋतुओं की विविधता भी दिखाई देती है। इस विविधता ने शुरू से ही हमें प्रत्येक अन्य स्थूल-सूक्ष्म वस्तु के प्रति सहनशीलता का पाठ पढ़ाया है। तभी तो अत्यंत प्राचीनकाल से ही यहां छोटे-बड़े अनेक धर्मों और संप्रदायोंको मानने वाले लोग शांतिपूर्वक एक साथ रहते आ रहे हैं। कई बार कई बाहरी शक्तियों और तत्वों े हमारी इस सांप्रदायिक सहनशीलता और एकता को खंडित करने का प्रयत्न किया और आज भी यह प्रयत्न बढ़-चढक़र हो रहा है। पर हर बार उन्हें विफलता का मुंह ही देखना पड़ा। इस बार भी देखना पड़ेगा, इतना निश्चित है। इतिहास गवाह है कि केवल एक बार सांप्रदायिकता के विश के प्रभाव से हमें ऐसा झटका खाना पड़ा है कि उसके घाव कभी भी भ नहीं सकते। यह झटका इस देश को अंग्रेजी साम्रज्यवाद ने दिया और सांप्रदायिकता के आधार परह यह देश सन 1947 में दो भागों में बंटकर रह गया। इस प्रकार का विभाजन आज तक के विश्व के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना मानी गई है।
यह ठीक है कि भारत बंट गया, उसका एक बहुत बड़ा भाग एक सांप्रदायिक देश एंव संस्कृति का रूप ले गया पर मूल भारतीय आत्मा ने सांप्रदायिकता के भाव को फिर भी नहीं स्वीकारा, कोई महत्व नहीं दिया। तभी तो नए भारत का जो संविधान बना, उसमें धर्म-निरपेक्षता और असांप्रदायिकता को एक बुनियादी शर्त के रूप में स्वीकार किया गया है। यह प्रावधान रखा गया कि यहां सभी धर्म और संप्रदाय स्वतंत्रापूर्वक अपने विश्वासों को पालते मानते हुए समानता के आधार पर रह सकते हैं। फिर भी कई बार यहां घिनौनी सांप्रदायिकता भडक़कर वातावरण को विषमय बना देती है और इधर कुछ वर्षों से तो बहुत अधिक बनाने लगी है-आखिर क्यों? कारण दो कहे या स्वीकार जाते हैं। एक तो कुछ निहित स्वार्थियों की कट्टरता कि जो रहते और खाते-पीते तो यहां का हैं पर उन्होंने अपने मानसिक या सांप्रदायिक भाई-चारे तथा विश्वास कहीं बाहर जमा रखे हैं। दूसरे वे लोग सांप्रदायिकता का शिकार हो जाते हैं जो एक ओर तो सत्ता के भूखे हैं, दूसरी ओर कुछ लोग उन बाहरी सत्ताओं के हाथों में बिक जाते हैं कि जो हमारे इसइ देश को एक समन्यवादी जनतंत्र के रूप में फलता-फूलता और सफलत नहीं देखना चाहते। ये दोनों प्रकार के लोग बाहरी तत्वों से धन और उकसावा पाकर अकसर यहां सांप्रदायिक विष घोलते रहते हैं, जिसके प्रभाव से बेचारे निर्दोष और भोले-भाले लोग मरते रहते हैं। इनसे बचाव बहुत आवश्यक है। नहीं तो हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी।
संसार का कोई भी सच्चा और महान धर्म यह नहीं सिखाता कि जहां रहते हो, जिस धरती का अन्न-जल खाते-पीते हो, उसके प्रति विद्वेष या किसी भी प्रकार की हीनता का भाव रखो। सभी महान धर्म, संप्रदाय और उनके प्रवर्तक अपने-अपने विश्वासों को पालते हुए भी सभी धर्मों, संप्रदायों के लोगों के प्रति समानता, सहिष्णुता बनाए रखने की शिक्षा देते हैं। कुछ धार्मिंग पंथ या संप्रदाय तो बने ही मानवता की सेवा या विशेष धर्मों की रक्षा के लिए थे पर सत्ता की भूख, अपने को अलग, विशिष्ट और महान समझने की भूल वस्तुत: अच्छे लोगों को भी भडक़ाकर गुमराह कर दिया करती है। सत्ता के भूखे कुछ राजनीतिक लोग जब धार्मिक बाने पहन या ओढक़र धर्म-स्थलों और धार्मिक भावनाओं को अपवित्र करने लगते हैं, सांप्रदायिक भेदभाव भडक़ाने लगते हैं, तब उस सबका प्रभाव विषवत ही हुआ करता है, अनुभव बताते हैं और यह बात कई बार स्पष्ट भी हो चुकी है। इस विष से बचने में ही सारी मानवता की भलाई है। अपना धर्म और राष्ट्र भी तभी ही बचे रह सकते हैं।
जीवन के हर क्षेत्र में समन्वयय पर विश्वास करने वाला भारत जैसा देश, जिसका संविधान सभी धर्मों, समुदायों को फलने-फूलने का समान अवसर प्रदान करता है, यदि वहां सांप्रदायिकता फलती-फूलती है, तो इसे घोर लज्जा का विषय ही कहा जाएगा। अत: किसी भी तुच्छ स्वार्थ या प्रभाव से प्रेरित होकर यहां की शांति ओर सांप्रदायिक सौहार्द को भंग करने की चेष्टा नहीं की जानी चाहिए।
प्रत्येक भारतीय जो अपने को मनुष्य समझता है, वहशी और जंगली नहीं है, उन सबका यह कर्तव्य हो जाता है कि उन नारों को सिर ही न उठाने दे कि जो सांप्रदायिक विष उगलने वाले हैं। यदि वे सिर उठाने की चेष्टा भी करें, तो उन्हें वहीं पर बेरहमी से कुचल दिया जाए। धर्म और संप्रदाय को मानवा का शत्रु नहीं मित्र और रक्षक मानकर विकसित होने दिया जाए। इसी में देश, राष्ट्र और सभी राष्ट्रवासियों के साथ-साथ मानवता की भी भलाई है। हमारे महान परंपराओं वाले देश का गौरव भी इसी में निहीत है और बना रहकर विश्व की अगुवाई कर सकता है। अपने इस स्वरूप को बनाए रखना उतना ही आवश्यक है, जितना अपने व्यक्तित्व एंव अस्तित्व की।
अनेकता में एकता यही भारत की विशेषता.
‘ह’ से हिन्दू, ‘म’ से मुसलमान और हम से सारा… हमारा हिंदुस्तान.
जाती पाती तोड़ दो, भेदभाव तूम छोड दो.
हमारा हे एक ही नारा, भाईचारा भाईचारा.
जात – पात के बंधन तोड़ो, भारत जोडो भारत जोडो.
देश हमारा हिंदुस्तान, रखेंगे हम उसकी शान.
हमलावर खबरदार, हिंदुस्तान हैं तैयार.
घर घर से आयी आवाज, बनायेंगे हम नया समाज.
करें हम ऐसा काम, बनी रहेगी देश की शान.
शांति मानव का धर्म हैं, अशांति अधर्म हैं.
अमरावती हो या अमृतसर, सारा देश अपना घर.
गौतम, गांधी और नेहरू का यह देश, एकता का देता सन्देश.
जब तक हैं बाकि प्राण, रखेंगे हम देश की शान.
हम सब प्रान्तवासी, बंधू सखा हैं भाई – भाई.
राष्ट्रिय एकता – जिंदाबाद, हमारा नारा – भाईचारा.
भिन्न भाषा भिन्न वेश, भारत हमारा एक देश.
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Medium Essay - 4 :- साम्प्रदायिकता पर निबंध | साम्प्रदायिकता एक अभिशाप पर निबंध ( 436 words )
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साम्प्रदायिकता | Sampradayikta | Communalism |
सांप्रदायिकता : एक अभिशाप
सांप्रदायिकता का अर्थ और कारण – जब कोई संप्रदाय स्वयं को सर्वश्रेष्ठ और अन्य स्म्प्दयों को निम्न मानने लगता है, तब सांप्रदायिकता का जन्म होता है | दूसरी तरफ भी कम अंधे लोग नहीं होते | परिणामस्वरूप एक संप्रदाय के अंधे लोग अन्य धर्मांधों से भिड पड़ते है और सारा जन-जीवन लहूलुहान कर देते हैं | इन्हीं अंधों को फटकारते हुए महात्मा कबीर ने कहा है –
हिंदू कहत राम हमारा, मुसलमान रहमाना |आपस में दोऊ लरै मरतु हैं, मरम कोई नहीं जाना ||
सर्वव्यापक समस्या – सांप्रदायिकता विश्व-भर में व्याप्त बुराई है | इंग्लैंड में रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट ; मुसलिम देशों में शिया और सुन्नी ; भारत में बैाद्ध-वैष्णव, सैव- बैाद्ध, सनातनी, आर्यसमाजी, हिन्दू-सिक्ख झगड़े उभरते रहे हैं | एन झगड़ों के कारण जैसा नरसंहार होता है, जैसी धन-संपति की हानि होती है, उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं |
भारत में सांप्रदायिकता – भारत में सांप्रदायिकता की शुरूआत मुसलमानों के भारत में आने से हुई | शासन और शक्ति के मद में अन्धें आक्रमणकारियों ने धर्म को आधार बनाकर यहाँ के जन-जीवन को रौंद डाला | धार्मिक तीर्थों का तोड़ा, देवी-देवताओं को अपमानित किया, बहु-बेटियों को अपवित्र किया, जान-माल का हरण किया | परिणामस्वरूप हिंदू जाति के मन में उन पाप-कर्मो के प्रति गहरी घ्रणा भर गई, जो आज तक भी जीवित है | बात-बात पर हिंदू-मुसलिम संघर्ष का भड़क उठना उसी घ्रणा का सूचक है |
सांप्रदायिक घटनाएँ – सांप्रदायिकता को भड़कने में अंग्रेज शासकों का गहरा षड्यंत्र था | वे हिन्दू-मुसलिम झगड़े फैलाकर शासक बने रहने चाहते थे | उन्होनें सफलतापूर्वक दोनों को लड़ाया | आज़ादी से पहले अनेक खुनी संघर्ष हुए | आज़दी के बाद तो विभाजन का जो संघर्ष और भीषण नर-संहार हुआ, उसे देखकर समूची मानवता रो पड़ी | शहर-के-शहर गाजर-मुली की तरह काट डाले गए | अयोध्या के रामजन्म-भूमि विवाद ने देश में फिर से सांप्रदायिक आग भड़का दी है | बाबरी मसजिद का ढहाया जाना और उसके बदले सैंकड़ों मंदिरों का ढहाया जाना ताजा घटनाएँ हैं |
समाधान – सांप्रदायिकता की समस्या तब तक नहीं सुलझ सकती, जब रक् कि धर्म के ठेकेदार उसे सुलझाना नहीं चाहते | यदि सभी धर्मों के अनुयायी दूसरों के मत का सम्मान करें, उन्हें स्वीकारें, अपनाएँ, उनके कार्यक्रमों में सम्मिलित हों, उन्हें उत्सवों पर बधाई देकर भाईचारे का परिचय दें | विभिन्न धर्मों के संघषों को महत्व देने की बजाय उनकी समानताओं को महत्व दें तो आपसी झगड़े पैदाही न हों | कभी-कभी ईद-मिलन या होली-दिवाली पर ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं तो एक सुखद आशा जन्म लेती है | साहित्यकार और कलाकार भी सांप्रदायिकता से मुक्ति दिलाने में योगदान कर सकते हैं |
Long Essay - 5 :- साम्प्रदायिकता पर निबंध | साम्प्रदायिकता एक अभिशाप पर निबंध( 761 words )
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साम्प्रदायिकता | Sampradayikta | Communalism |
हमारा देश भारत सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखता है । यहाँ पर जितने धमों को मानने वाले लोग रहते हैं उतने संभवत: विश्व के किसी और देश में नहीं हैं । किसी विशेष धर्म पर आस्था रखने वाले लोगों का वर्ग ‘संप्रदाय’ कहलाता है ।
किसी विशेष संप्रदाय का कोई व्यक्ति यदि अपना कोई एक अन्य मत चलाता है तो उस मत को मानने वाले लोगों का वर्ग भी संप्रदाय कहलाता है । वास्तव में सभी संप्रदायों अथवा मतों का मूल एक ही है । सभी का संबंध मानवता से है । हर धर्म मानव को मानव से जोड़ना सिखाता है ।
परंतु जो धर्म इस भावना के विपरीत कार्य करता है उसे ‘धर्म’ की संज्ञा नहीं दी जा सकती । आज कुछ लोग अपने निजी स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए धर्म को संप्रदाय का रूप दे रहे हैं । प्रत्येक संप्रदाय आज अपने को श्रेष्ठ कहलाने के लिए आतुर है । इसके लिए वे किसी भी सीमा तक जाकर दूसरों को हीन साबित करना चाह रहे हैं ।
साप्रदायिकता का जहर इस सीमा तक फैलता जा रहा है कि कहीं-कहीं इसने वाद-विवाद की सीमा से हटकर संघर्ष का रूप ले लिया है । आज बहुत से लोग बलपूर्वक धर्म परिवर्तन के लिए दूसरों को बाध्य कर रहे हैं । इसी बल प्रयोग के परिणामस्वरूप ही सिख तथा मराठों का उदय हुआ ।
सांप्रदायिकता की आड़ में लोग मानवता, धर्म को भुला रहे हैं । वे नन्हे-नन्हे मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ रहे हैं । कितनी ही माताओं की गोद से उनके बच्चे छिन गए । कितनी ही औरतें युवावस्था में ही वैधव्य का कष्ट झेल रही हैं । हर ओर खून-खराबा हो रहा है । राजनीति में लोगों के राजनीतिक स्वार्थ ने भी प्राय: सांप्रदायिकता को हथियार की तरह प्रयोग किया है ।
एक संप्रदाय से दूसरे को धर्म अथवा जाति के नाम पर अलग करके वे हमेशा से ही अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे हैं । सौप्रदायिकता की आग पर राजनीतिज्ञों ने प्राय: अपनी रोटियाँ सेंकी हैं परंतु इस सबके लिए दोषी ये राजनीतिज्ञ कम हैं क्योंकि विभिन्न संप्रदायों को हानि पहुँचाने की मूर्खता हम लोग ही करते हैं ।
हालाँकि सभी राजनीतिज्ञों को दोष देने की परंपरा अनुचित है परंतु यह सत्य है कि कुछ स्थानीय सांप्रदायिक नेतागण अपने संप्रदाय की सहानुभूति के लोभ में ओछी हरकतों को अंजाम देते रहे हैं । हमें ऐसे तत्वों से हमेशा सावधान रहना चाहिए ।
सांप्रदायिकता का जो सबसे खतरनाक रूप है, वह हमारे मर्म को ही बेध जाता है । वे अपना संबल तथाकथित धर्म के स्वरूपों में ढूँढ़ते हैं । भारतीय संसद पर हमला, गुजरात के भीषणतम दंगे, कश्मीर में जेहाद, अमेरिका पर अमानवीय हमला, रूस में स्कूली बच्चों सहित सात सौ लोगों के अपहरण कांड में लगभग चार सौ मासूमों की बलि, ये सारी बातें जब मानवता कई ही विरुद्ध हैं तो सांप्रदायिक दृष्टि से इन्हें कैसे जायज ठहराया जा सकता है।
आज भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व सांप्रदायिकता का विषपान करने के लिए अभिशप्त है । हमारा देश हालाँकि अपने उदार धार्मिक नजरिए के लिए हमेशा से जाना जाता रहा है परंतु कुछ लोग कट्टरवाद का सहारा लेकर अपने ही अतीत को कलंकित करने का कार्य कर रहे हैं ।
प्राचीन भारत में भी शैव, वैष्णव, बौद्ध जैन आदि विभिन्न संप्रदायों का अस्तित्व था परंतु उस समय के लोग अपने संप्रदाय से जुड़े होने पर गर्व का अनुभव करते थे । एक संप्रदाय के लोग दूसरे से वाद-विवाद करते थे, सिद्धांतों की व्याख्या होती थी, तर्क-वितर्क होते थे पर यह आपसी संघर्ष का रूप कभी नहीं लेते थे ।
उस समय प्रत्येक संप्रदाय स्वयं को अधिक शुद्ध, अधिक नैतिक तथा अधिक धार्मिक होने की प्रतियोगिता करता था जिससे मानव के विकास के द्वार खुलते थे । आज स्थिति पूरी तरह पलट गई है । तभी तो गाँधी जी जैसे महामानव को इसी संप्रदायवाद ने अपना शिकार बना लिया ।
विश्व में आज जितनी हिंसा हो रही है, उसके मूल में प्राय: सांप्रदायिकता है । इस विष वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को सजगता दिखानी होगी क्योंकि व्यक्ति समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई होती है ।
सांप्रदायिकता वास्तविक रूप में मानव जाति के लिए किसी कलंक से कम नहीं है । यह विकास की गति को कम करके देश को प्रगति के पथ पर बहुत पीछे धकेल देती है । हम सबका यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने निजी स्वार्थों से बचें ।
दूसरों के बहकावे में न आएँ । हर धर्म को समभाव से देखें और उनका समान रूप से आदर करें तो वह दिन दूर नहीं होगा जब हम समाज से सांप्रदायिकता का समूल विनाश कर सकेंगे ।
Long Essay - 6 :- साम्प्रदायिकता पर निबंध | साम्प्रदायिकता एक अभिशाप पर निबंध ( 808 words )
अनेक धर्मों, जातियों, संप्रदायों आदि के रहते हुए भी अपनी मूल अवधारणा में भारत अपने आरंभ से ही एक समन्यवादी देश रहा और है। यहां की स्थूल-सूक्ष्म प्रकृति भी समन्यवादी कही जा सकती है। तभी तो वन, पर्वत, मैदान , रेगिस्तान आदि की विविधता के साथ-साथ छह ऋतुओं की विविधता भी दिखाई देती है। इस विविधता ने शुरू से ही हमें प्रत्येक अन्य स्थूल-सूक्ष्म वस्तु के प्रति सहनशीलता का पाठ पढ़ाया है। तभी तो अत्यंत प्राचीनकाल से ही यहां छोटे-बड़े अनेक धर्मों और संप्रदायोंको मानने वाले लोग शांतिपूर्वक एक साथ रहते आ रहे हैं। कई बार कई बाहरी शक्तियों और तत्वों े हमारी इस सांप्रदायिक सहनशीलता और एकता को खंडित करने का प्रयत्न किया और आज भी यह प्रयत्न बढ़-चढक़र हो रहा है। पर हर बार उन्हें विफलता का मुंह ही देखना पड़ा। इस बार भी देखना पड़ेगा, इतना निश्चित है। इतिहास गवाह है कि केवल एक बार सांप्रदायिकता के विश के प्रभाव से हमें ऐसा झटका खाना पड़ा है कि उसके घाव कभी भी भ नहीं सकते। यह झटका इस देश को अंग्रेजी साम्रज्यवाद ने दिया और सांप्रदायिकता के आधार परह यह देश सन 1947 में दो भागों में बंटकर रह गया। इस प्रकार का विभाजन आज तक के विश्व के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना मानी गई है।
यह ठीक है कि भारत बंट गया, उसका एक बहुत बड़ा भाग एक सांप्रदायिक देश एंव संस्कृति का रूप ले गया पर मूल भारतीय आत्मा ने सांप्रदायिकता के भाव को फिर भी नहीं स्वीकारा, कोई महत्व नहीं दिया। तभी तो नए भारत का जो संविधान बना, उसमें धर्म-निरपेक्षता और असांप्रदायिकता को एक बुनियादी शर्त के रूप में स्वीकार किया गया है। यह प्रावधान रखा गया कि यहां सभी धर्म और संप्रदाय स्वतंत्रापूर्वक अपने विश्वासों को पालते मानते हुए समानता के आधार पर रह सकते हैं। फिर भी कई बार यहां घिनौनी सांप्रदायिकता भडक़कर वातावरण को विषमय बना देती है और इधर कुछ वर्षों से तो बहुत अधिक बनाने लगी है-आखिर क्यों? कारण दो कहे या स्वीकार जाते हैं। एक तो कुछ निहित स्वार्थियों की कट्टरता कि जो रहते और खाते-पीते तो यहां का हैं पर उन्होंने अपने मानसिक या सांप्रदायिक भाई-चारे तथा विश्वास कहीं बाहर जमा रखे हैं। दूसरे वे लोग सांप्रदायिकता का शिकार हो जाते हैं जो एक ओर तो सत्ता के भूखे हैं, दूसरी ओर कुछ लोग उन बाहरी सत्ताओं के हाथों में बिक जाते हैं कि जो हमारे इसइ देश को एक समन्यवादी जनतंत्र के रूप में फलता-फूलता और सफलत नहीं देखना चाहते। ये दोनों प्रकार के लोग बाहरी तत्वों से धन और उकसावा पाकर अकसर यहां सांप्रदायिक विष घोलते रहते हैं, जिसके प्रभाव से बेचारे निर्दोष और भोले-भाले लोग मरते रहते हैं। इनसे बचाव बहुत आवश्यक है। नहीं तो हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी।
संसार का कोई भी सच्चा और महान धर्म यह नहीं सिखाता कि जहां रहते हो, जिस धरती का अन्न-जल खाते-पीते हो, उसके प्रति विद्वेष या किसी भी प्रकार की हीनता का भाव रखो। सभी महान धर्म, संप्रदाय और उनके प्रवर्तक अपने-अपने विश्वासों को पालते हुए भी सभी धर्मों, संप्रदायों के लोगों के प्रति समानता, सहिष्णुता बनाए रखने की शिक्षा देते हैं। कुछ धार्मिंग पंथ या संप्रदाय तो बने ही मानवता की सेवा या विशेष धर्मों की रक्षा के लिए थे पर सत्ता की भूख, अपने को अलग, विशिष्ट और महान समझने की भूल वस्तुत: अच्छे लोगों को भी भडक़ाकर गुमराह कर दिया करती है। सत्ता के भूखे कुछ राजनीतिक लोग जब धार्मिक बाने पहन या ओढक़र धर्म-स्थलों और धार्मिक भावनाओं को अपवित्र करने लगते हैं, सांप्रदायिक भेदभाव भडक़ाने लगते हैं, तब उस सबका प्रभाव विषवत ही हुआ करता है, अनुभव बताते हैं और यह बात कई बार स्पष्ट भी हो चुकी है। इस विष से बचने में ही सारी मानवता की भलाई है। अपना धर्म और राष्ट्र भी तभी ही बचे रह सकते हैं।
जीवन के हर क्षेत्र में समन्वयय पर विश्वास करने वाला भारत जैसा देश, जिसका संविधान सभी धर्मों, समुदायों को फलने-फूलने का समान अवसर प्रदान करता है, यदि वहां सांप्रदायिकता फलती-फूलती है, तो इसे घोर लज्जा का विषय ही कहा जाएगा। अत: किसी भी तुच्छ स्वार्थ या प्रभाव से प्रेरित होकर यहां की शांति ओर सांप्रदायिक सौहार्द को भंग करने की चेष्टा नहीं की जानी चाहिए।
प्रत्येक भारतीय जो अपने को मनुष्य समझता है, वहशी और जंगली नहीं है, उन सबका यह कर्तव्य हो जाता है कि उन नारों को सिर ही न उठाने दे कि जो सांप्रदायिक विष उगलने वाले हैं। यदि वे सिर उठाने की चेष्टा भी करें, तो उन्हें वहीं पर बेरहमी से कुचल दिया जाए। धर्म और संप्रदाय को मानवा का शत्रु नहीं मित्र और रक्षक मानकर विकसित होने दिया जाए। इसी में देश, राष्ट्र और सभी राष्ट्रवासियों के साथ-साथ मानवता की भी भलाई है। हमारे महान परंपराओं वाले देश का गौरव भी इसी में निहीत है और बना रहकर विश्व की अगुवाई कर सकता है। अपने इस स्वरूप को बनाए रखना उतना ही आवश्यक है, जितना अपने व्यक्तित्व एंव अस्तित्व की।
Quotes For Communalism | साम्प्रदायिकता | Sampradayikta :-
सभी धर्म की एक पुकार, एकता को करो साकार.
अनेकता में एकता यही भारत की विशेषता.
‘ह’ से हिन्दू, ‘म’ से मुसलमान और हम से सारा… हमारा हिंदुस्तान.
जाती पाती तोड़ दो, भेदभाव तूम छोड दो.
हमारा हे एक ही नारा, भाईचारा भाईचारा.
जात – पात के बंधन तोड़ो, भारत जोडो भारत जोडो.
देश हमारा हिंदुस्तान, रखेंगे हम उसकी शान.
हमलावर खबरदार, हिंदुस्तान हैं तैयार.
घर घर से आयी आवाज, बनायेंगे हम नया समाज.
करें हम ऐसा काम, बनी रहेगी देश की शान.
शांति मानव का धर्म हैं, अशांति अधर्म हैं.
अमरावती हो या अमृतसर, सारा देश अपना घर.
गौतम, गांधी और नेहरू का यह देश, एकता का देता सन्देश.
जब तक हैं बाकि प्राण, रखेंगे हम देश की शान.
हम सब प्रान्तवासी, बंधू सखा हैं भाई – भाई.
राष्ट्रिय एकता – जिंदाबाद, हमारा नारा – भाईचारा.
भिन्न भाषा भिन्न वेश, भारत हमारा एक देश.
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